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31.5.20

कवि संगीत कुमार वर्णबाल की कविता - '' दर्द भरे क्या गीत लिखूँ ''



संगीत कुमार वर्णबाल
कवि  












दर्द भरे क्या गीत लिखूँ

दर्द भरे क्या गीत लिखूँ 
किसे मन का प्रीत कहूँ
भोर हुआ तम ठहर गया
आशा - किरण न दिख रहा
दर्द भरे क्या गीत लिखू 

किससे पूछूं किससे कहूँ
किससे अब वाकया करू
न प्रीत मिला न चैन मिला
मन में तम छा गया
दर्द भरे क्या गीत लिखूँ 

दिन रात में अब न फर्क रहा
उर वेदना से त्रस्त हुआ
अधर मुस्कान भी रुक गया
अपनों का न अब संग रहा
दर्द भरे क्या गीत लिखूँ 

धरा जैसा जो तुझे समझा 
गंगा जैसा निर्मल माना 
प्राणों का चिर दर्द बना
जो मिटाये अब न मिट रहा
दर्द भरे क्या गीत लिखूँ  

तस्वीर थी तेरी मेरे मन में 
तुम जा कहाँ अब खो गयी 
अश्क बहा मन रो रहा
तुम क्यों हमसे दूर हुई
दर्द भरे क्या गीत लिखूँ  

हो गई अब आँखों से ओझल
हृदय बिलख अब रो रहा
किसे मुस्कान भरे अब गीत कहूँ
मन प्रीत मुझे जो मिल न सका
दर्द भरे क्या गीत लिखूँ  **

  - संगीत कुमार  वर्णबाल 

             जबलपुर 


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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई

 माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867





कवि श्रीकृष्ण शर्मा की कविता - '' तुम बिन अधूरा मैं ! ''

( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के काव्य - संग्रह - '' अक्षरों के सेतु '' से ली गई , 1966 में रचित रचना )
















तुम बिन अधूरा मैं !

ओ मेरे परिचय ,
मैं तुमसे बिछुड़ करके
बन गया स्वयं को ही
आज एक अजनबी हूँ !


मेरे दृग ,
दृष्टि की तुम्हारी परिधियों से
दूर हुआ मैं
सब कुछ देख कुछ न देखता |


ओ मेरे स्वर ,
तुमसे वंचित मैं आज यहाँ
सब कुछ सुन रहा
मगर कुछ न सुनाई पड़ता |


शब्दों का बोझ लिये
मैं अब भी शब्दहीन
- अर्थ नहीं बन पाया |
आत्मलीन होकर भी
भावों के अँधियारे
गलियारों के उन
गुलाबों की छवि को मैं
इस क्षण तक
अपने इन गीतों के रेशम में
- बाँध नहीं पाया |


अब भी –
अतीत के
वे बिम्ब पारदर्शी सब
तुमने जो
मेरे इन प्राणों पर छोड़ दिये
- बेहद ही उजले हैं ,
उनके वे रंग
अभी धुँधले पड़े नहीं !


हरदम –
वे पगडंडी ,
सीढ़ी के वे घुमाव ,
घर के कोने – अंतरे ,
आँगन की तुलसी ,
दीवारों के लेखचित्र ,
स्नेह – भरी आँखें वे ,
ममता से बढ़ी बाँह ,
आशंकित उत्सुकता ,
भार बना संयम ,
- वे सब कुछ हैं अब तक भी
मेरे सँग यहीं कहीं !


उन गुजरी राहों में
मेरा मन अटका है ,
और पाँव घिसट रहे
मौजूदा राहों में !


तुम बिन
मैं आधा हूँ
तुम बिन अधूरा मैं
कब तक यूँ भटकूँगा
लिए हुए एक समूचा जंगल
- बाँहों में ?


बार – बार मर कर भी
सिरजन की पीड़ा को
साँसों में ढोऊँगा ,
बीते के गालों पर
मुँह धर कर रोऊँगा ,
- मैं कब तक ?


कैसा ये खालीपन
कैसा ये भारी मन
मुझको जो अनुभावित
होता है प्रिय तुम बिन !


लगता है –
मन मैं कुछ
कहीं स्यात् टूट गया ,
जीवन का एक छोर
दूर कहीं छूट गया ,
जिससे अब भेंट नहीं
होगी शायद कभी ! **

      - श्रीकृष्ण शर्मा 

 




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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई 

माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867

30.5.20

कवि संगीत कुमार वर्णबाल की कविता - '' थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ ''













थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ


थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ
लोग सड़क पर उतर पड़े ।
न मास्क का वो ध्यान रखे
न दूरी का ही ख्याल किये ।
यूं ही अनमने सब घूम रहें
थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ 

फेरीवाला सामान घूम - घूम बेच रहा
लोग खरीदने टूट पड़े ।
बड़े - बूढे न समझ रहे
न कोरोना का परवाह किया ।
थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ 

मत समझ कि काल अब चला गया
दुल्हन बन ओ अदृश्य खड़ी ।
जीवन अनमोल उसे बचाये रख
दूरियां एक - दूसरे से बनाये रख ।
थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ 

मूर्ख बन बलवान न समझ
समझदारी से हर काम कर ।
हर काम दूरी बनाये कर
अपने जीवन की खुद परवाह कर ।
थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ 

आवश्यक हो तो बाहर निकल 
बेवजह न इधर - उधर मचल ।
न कोई अपना न कोई पराया          
अपनों का सब ध्यान कर अलख मन में जगाये चल ।
थोड़ा सा क्या लौकडाउन में ढील हुआ **


        -  संगीत कुमार वर्णबाल  

                          जबलपुर 








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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई

 माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867


   

पवन शर्मा की लघुकथा - '' अपराध बोध ''



                     ( प्रस्तुत लघुकथा – पवन शर्मा की पुस्तक – ‘’ हम जहाँ हैं ‘’ से ली गई है )  





                   अपराध – बोध

चाचाजी ने अपनी कमीज़ उतार ली , फिर दोनों पैर मोड़कर सोफे पर पालथी मार कर बैठ गए | उसे अटपटा लगा , किंतु चुप रहा | वह देख रहा है – चाचाजी बार – बार ड्राइंग – रूम को चोरी – चोरी देख लेते हैं | शायद वे ड्राइंग – रूम की भव्यता को देख रहे हैं | उसे बैचेनी होती है कि दोनों के बीच मौन का सिलसिला टूट क्यों नहीं रहा है ?
          ‘ बीमार थीं ? '  चाचाजी ने मौन तोड़ा |
          ‘ नहीं ... बुढ़ापे का शरीर था | '
          ‘ भाभी ने अपनी जिनगी में बेजा दुःख झेले | '
          वह चुप रहा | अपने पिता की मौत के बाद के दिन वह भी नहीं भूला है | कितने कष्टों में बीते है उसके वे दिन ! अभी भी याद है | यदि चाचाजी ने उसे और अम्मा को सहारा नहीं दिया होता तो वह सिर्फ़ गाँव का ही होकर रह गया होता | अम्मा चाचाजी की हमेशा ऋणी रहीं | एक बेसहारा औरत और उसके बच्चे को आसरा दिया | तभी तो सारी जिन्दगी अम्मा ने गाँव में ही बिता दी | साल भर पूर्व ही पुत्र – मोह में फँसी वे उसके पास चली आईं |
          ‘ तूने मोए ख़बर तक नई करी | '  चाचाजी ने कहा |
          ‘ समय नहीं मिल पाया ... कहीं भी ख़बर नहीं दे पाया | '
          ‘ सारी जिनगी उनकी सेवा करी | '  वह महसूस करता है कि चाचाजी की आवाज में बेहद पीड़ा है ,  ‘ आखिरी समय में भाभी ऐ देख नई पाओ मैं | '
          ‘ यही बात आपके लिए कहते – कहते अम्मा चली गईं | '  वह कहता है |
          कहने के बाद उसे लगता है कि वह किसी अनजाने अपराध – बोध से दबा जा रहा है | **

        

        - पवन शर्मा 











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पता
श्री नंदलाल सूद शासकीय उत्कृष्ट  विद्यालय ,
जुन्नारदेव  , जिला - छिन्दवाड़ा ( म.प्र.) 480551
फो. नं. - 9425837079 .
ईमेल – pawansharma7079@gmail.com

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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई

 माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867



29.5.20

कवि श्रीकृष्ण शर्मा का दोहा - '' ओ हिन्दी के सूर्य '' ( भाग - 8 )





     ( कवि श्रीकृष्ण शर्मा की दोहा – सतसई - ‘ मेरी छोटी आँजुरी ’ से लिया गया है )




28.5.20

कवि श्रीकृष्ण शर्मा का दोहा - '' ओ हिन्दी के सूर्य '' ( भाग - 7 )




       ( कवि श्रीकृष्ण शर्मा की दोहा – सतसई - ‘ मेरी छोटी आँजुरी ’ से लिया गया है )




27.5.20

कवि श्रीकृष्ण शर्मा की कविता - '' जिज्ञासा और उपलब्धि ''




















( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के काव्य - संग्रह - '' अक्षरों के सेतु '' से ली गई सन 1965 में लिखित 

कविता  )


जिज्ञासा और उपलब्धि


( प्रथम सम्मेलन की अनुभूतियों को दिया गया शब्दरूप )


मेरा जिज्ञासु ह्रदय ,
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया |


कौतुहल था शायद ,
शायद जिज्ञासा थी ,
क्योंकि –
उस धरातल पर
शब्द बेजरूरत थे ,
अनबोला ख़ामोशी
भाषा की परिणति थी ,
भावों की भाषा थी |


अनहोना होने की आशा थी |
आह ,
तभी आकर्षण के मंत्रों से कीला
मेरा यह भावुक मन ,
लहरों के गहरे में उतर गया |


मेरा जिज्ञासु ह्रदय ,
पलभर को ठिठका
फिर ठहर गया |


अनायास
अटाटूट पानी से भरी नदी
सूने औ’ अंधे गलियारे से
लायी मुझको समेटे
शत – सहस्त्र बाँहों में ,
दिगंबरा अपरिसीम कविता के
वत्सला उजालों में ,
लज्जारुण यौवन का
छंद हो मुखर गया |


सीपी में ,
शंखों में ,
मोती औ’ मूंगों का
द्वीप - सा सँवर गया |


मेरा जिज्ञासु ह्रदय
पलभर को ठिठका
फिर ठहर गया |


अनायास
जिसमें थे जूही के फूल खिले अनगिनती ,
हरियाली छांहों में
-   -  बौरायी – सी विनती |


सौरभ ही सौरभ है ,
बिनपरसे
तन – मन औ’ प्राण में समा गया ,
मादकता का खुमार – जैसा कुछ छा गया ,
-  -  मूर्छित बन गया |


साँसों में
एक अजब गंध घुली |


छवि की वह छुअन
मूक रोशनी लहर जैसी
बाहर से भीतर तक मुझको नहला गयी ,
बावला बना गयी |
इस तन में
हुआ एक नया – नया संवेदन |


नस – नस में
विद्युत सी दौड़ गयी ,
संयम के मर्यादित पहरों को तोड़ गयी |
अंग – अंग कसा
आह , विह्वल मदमाता – सा
धन – ऋण के दो विलोम ध्रुवों को जोड़ गयी |


पाटल के दल – के – दल
तिर आये बाँहों में ,
इन्द्रधनुष उग आये
उम्र की निगाहों में |


डूब गया
तन में तन
तृषित और आकांक्षित
मेरा रसभीगा मन ,
चंदन की घाटी में उतर गया |


मेरा जिज्ञासु ह्रदय ,
पल – भर को ठिठका
फिर ठहर गया |


ये ही क्षण –
अमृत के बीजों को बोते हैं ,
ये ही क्षण –
जीवन में मधुरता सँजोते हैं ,
ये ही क्षण –
सिरज रहे तुलसी औ’ कालिदास
ये ही क्षण –
आत्मप्रभ ज्ञान – दीप होते हैं |
ये ही क्षण असंयम के
ये ही क्षण अमर्यादित
-  - पूजित हो पुण्य हुए |


मुझको
जो परम्परा प्राप्त हुई
जीवन की
अपने से आगे वह मैंने बढ़ाने को ,
-   - प्राणों से प्राण रचे
पितृ - ऋण चुकाने को |


सार्थक
औ’ पूर्णकाम
मेरा यह पिण्ड हुआ
देह – प्राण धन्य हुए |


मेरा विचारक मन
संशय से परे
दिव्य भावों से भर गया |


मेरा जिज्ञासु ह्रदय
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया | **

           - श्रीकृष्ण शर्मा 
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई

 माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867