यह गीत , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -
ये बदरा
ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में ,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा !!
जल की चल झीलें ये ,
उड़ती हैं चीलों - सी ,
झर-झर-झर झरती हैं ,
जलफुहियाँ खीलों-सी ;
पानी की सतह-सतह
बूंद के बतासें ये
फैंक दिये मेघों ने
खिसिया कर पाँसे ये;
पीपल जो बेहद खुश
था अपनी बाजी पर,
उसके ही सिर पर अब
गाज गिरी है अररा !
ये बदरा !!
व्योम की ढलानों पर
बरखा के बेटे ये,
दौड़-दौड़ हार गये,
हार-हार बैठे ये;
लेटे-अधलेटे ये
नक्षत्र नैन मूँद ,
चंदा के अँजुरी भर
स्वप्न सँजो बूंद-बूंद;
अर्पित हो बिखर गये
भावुक समर्पण में,
टूट गया जादू औ'
टोनों का हर पहरा !
ये बदरा !!
बिना रीढ़ वाले ये
जामुनी अँधेरे-से ,
आर-पार घिरे हुए
सम्भ्रम के घेरे-से;
धरती की साँसों की
गुँजलक में बंधे हुए,
आते हैं सागर की
सुधियों से लदे-फंदे ;
आँखों में अंकित हैं
काया के इन्द्रधनुष ,
प्राणों में बीते का
सम्मोहन है गहरा !
ये बदरा !!
ये बदरा !
अटका रह गया
किसी नागफनी काँटे में,
बिजुरी का ज्यों अँचरा !
ये बदरा !! **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा
सम्पर्क - 9414771867