इसे , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " मेरी छोटी आँजुरी " ( दोहा - सतसई ) से लिया गया है | यह पुस्तक की भूमिका है -
मेरी छोटी आँजुरी
आस्थाओं का हिमवान ( भाग - 3 )
( भूमिका )
... आज कविता के तथाकथित पैरोकारों ने ऐसे – ऐसे फतवे दिये हैं , जिनसे कविता की मूलभूत मान्यताएँ गहरे तक आघातित हुई हैं , और यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि साहित्य का वातावरण दूषित हो गया है |
( भाग - 3 )
सूर और तुलसी का साहित्य
रसिकों का वचनवैदग्ध्य है | भावुकता या अश्रुमोचन कोई इनका शौक नहीं है अपितु गहरी
मर्मव्यथा है | हिन्दी का अतीत इसी से गौरवमय बना है | शर्मा जी ने इसे सहेजने में
कोई भूल नहीं की है | किन्तु बड़बोले कमाऊ कवियों की भड़ैती का निर्भय होकर पर्दाफ़ाश
भी किया है |
नहीं अध्ययन – मनन है , और न
काव्य विवेक |
किन्तु कंठ के बल बने , वे
कवि नम्बर एक ||
मर्यादा शालीनता ,का न मंच
पर काम |
गन्दे फूहड़ चुटकुले , सिर्फ
हास्य का नाम ||
बस गिनती के गीत हैं , उन पर
पन्द्रह – बीस |
उन्हें सुनाकर हो गए मिठू जी
‘ वागीश ’ ||
कवि – सम्मलेन में घुस आये अशोमन
प्रसंगों का उल्लेख शर्मा जी ने अनेक दोहों में किया है | इनके चरित्रों पर बेबाक
टिप्पणियाँ भी की हैं | इनके बिना जमाने के दोष सामने नहीं आते तो भी यहाँ एक बात
को ओझल नहीं करना चाहिए कि अल्पशिक्षित सामान्य जन की रुचि के अनुकूल बनाकर
प्रस्तुत करने की कला जब तक श्रेष्ठ रचनाकार नहीं सीखते , तब तक इस विकृति से
छुटकारा नहीं मिल सकता |
एक बात अक्सर देखी गई है कि अपने आपको
श्रेष्ठ रचनाकार मानने वाले लेखक / कवि अपनी रचनाओं को समीक्षा / आलोचना की बैसाखी
पर खड़ा करने के लिए अत्यधिक बैचेन रहते हैं | कवि को अपनी कविता के लिए आलोचकों ,
समीक्षकों की टीका – टिप्पणी के लिए नवसिखुए लेखकों की चिरौली करनी पड़ती है |
साधारण से भी गए – बीते आलोचक की पूछ होने लगती है | झूठी प्रशंसा के पुल बांधे
जाते हैं और यह लिखवाया जाता है कि इनके जैसा दूसरा कवि आज तक पैदा नहीं हुआ |
यहाँ मैं यह कहना आवश्यक समझता हूँ कि श्री श्रीकृष्ण शर्मा की प्रस्तुत दोहा –
सतसई पर यह दोष कतई नहीं लगाया जा सकता |इनके दोहे मुखर हैं , बोलते हुए हैं |
इन्हें न किसी भूमिका की आवश्यकता है , और न झूठी प्रशंसा की | इनमें चारुता औए
दृढ़ता दोनों हैं | अत्यन्त प्रसन्न मधुर होकर भी वाचाल नहीं हैं | ये दोहे अपने
पैरों पर सीधे दौड़ते हैं , अपनी बात खुद सफलतापूर्वक कहते हैं | इनमें गजब का
संतुलन है |
परिवर्तन और नवीनता का स्वागत होना
चाहिए | यह प्रकृति का अटल सिद्धान्त है , जिसको कोई बदल नहीं सकता | परन्तु अतीत
से प्राप्त ज्ञान और संस्कृति का तिरस्कार नवीनता के लिए कोई शर्त नहीं हो सकती |
संसार की कोई भी श्रेष्ठ कृति नूतन और पुरातन के समन्वय के अभाव में नहीं चल सकती |
सर्वविध्वंसकारी मनोवृति के साथ जो एकाधिकारवादी आग्रह या आन्दोलन चलाने पर आमादा
हों उनके फतवों पर जिहादों को कितना महत्व दिया जाना चाहिए , यह बताने की आवश्यकता
नहीं है | इनके लिए ‘ स्वकीय ’ परम्पराओं और इतिहास का अपनी दृष्टि से आकलन करना
होगा , दूसरों के द्वारा ईर्ष्यावश या राजनैतिक कारणों से की गयी व्याख्याएँ कहीं हमारी
अस्मिता को ठेस न लगा सकें , इसके प्रति जागरूक रहकर ही साहित्य और संस्कृति का
नवोन्मेष परिक्षणीय हो उठता है | इस अर्थ में ‘ मेरी छोटी आँजुरी ’ में कवि ने बड़े
दायित्वों को पूरे मनोयोग से निभाना है |
नवतावादी आन्दोलनों के उठने और गिरने
के पीछे एक बड़ा तथ्य साहित्य समीक्षा का पटरी से उतरना है | असल में आज की आलोचना
ऐसी बेलगाम घोड़ी है , जो अराजकता की जननी है और रचनाशीलता को धक्का देकर गिराने का
आतंकपूर्ण प्रयास करती है | यह साहित्य – जगत में असाहित्यिकता की घुसपैठ है ,
मानव संस्कृति की उदार चेतना को संकीर्ण दायरों में बाँधकर प्रतिबद्धता का ढोंग
करती है और अपनी वोट बैंक बैलेंस बढ़ाने की बुरी नीयत से संचालित होती है | जिस
समाज में साहित्य और संस्कृति का चिन्तन मौलिक स्वकीय और सहज होगा , आरोपित नहीं ,
वहाँ साहित्य और समाज दोनों का स्वस्थ विकास होना अवश्यंभावी है |
कविवर शर्मा जी का परम्परा को नमन करने
का अपना तरीका है , जो अधिक मुखर है | **
( आगे का , भाग – 4 में )
- डॉ0 योगेन्द्र गोस्वामी
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.