यह नवगीत, श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " एक नदी कोलाहल ( नवगीत - संग्रह ) से लिया गया है -
मैं फिर भी न सपड़ा
ठीक बाहर
याकि मेरे ठीक भीतर
एक मुर्दा ज़िन्दगी
औ' शहर उजड़ा |
ओफ,
जब ये धड़कता है दिल
लगता मांस का एक लोथड़ा है ,
और मैं महसूसता हर पल
कि आफ़त सा कोई पीछे पड़ा है ;
अदबदा कर भागता मैं
जान अपनी छोड़ ,
गिरता और पड़ता
पाँव होते हुए लंगड़ा |
ख्वाब में
डर से निकलती चीख ,
लगता हो गयी हैं अधमरी साँसें ,
धँसे हैं रक्त - प्यासे ड्रेकुला के दांत ,
खुलते जा रहे हैं देह के गाँसे ;
हो रही इन ठोकरों में
है कपाल क्रिया ,
मैं फिर भी न सपड़ा | **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
फोन नम्बर – 9414771867.
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद, आदरणीय आलोक सिन्हा जी |
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