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5.12.21

कवि श्रीकृष्ण शर्मा का नवगीत - " मैं फिर भी न सपड़ा "

 यह नवगीत, श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " एक नदी कोलाहल ( नवगीत - संग्रह ) से लिया गया है -











मैं फिर भी  न सपड़ा


ठीक बाहर 

याकि मेरे ठीक भीतर 

एक मुर्दा ज़िन्दगी 

औ' शहर उजड़ा |


ओफ,

जब ये धड़कता है दिल 

लगता मांस का एक लोथड़ा है ,

और मैं महसूसता हर पल 

कि आफ़त सा कोई पीछे पड़ा है ;


अदबदा कर भागता मैं 

जान अपनी छोड़ ,

गिरता और पड़ता 

पाँव होते हुए लंगड़ा |


ख्वाब में 

डर से निकलती चीख ,

लगता हो गयी हैं अधमरी साँसें ,

धँसे हैं रक्त - प्यासे ड्रेकुला के दांत ,

खुलते जा रहे हैं देह के गाँसे ;


हो रही इन ठोकरों में 

है कपाल क्रिया ,

मैं फिर भी न सपड़ा | **


                                 - श्रीकृष्ण शर्मा 

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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , फोन नम्बर – 9414771867.


2 comments:

  1. बहुत बहुत सुन्दर

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  2. धन्यवाद, आदरणीय आलोक सिन्हा जी |

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