यह नवगीत, श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " एक नदी कोलाहाल " ( नवगीत - संग्रह ) से लिया गया है -
फूट रहे कुल्ले
झूठ नहीं ,
ठूँठ था यहाँ पर
अब ठूँठ नहीं |
फूट रहे कुल्ले
ज्यों चन्द्रमा ,
बीहड़ को फोड़
उग रहा समा ;
अंधे आतंक से ,
तू टूट नहीं |
मंच के नियामक
तो चले गये ,
बॉबी से बाहर
विष - सर्प नये ;
फन पर रख बूट ,
अगर मूँठ नहीं | **
- श्रीकृष्ण शर्मा
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