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30.10.19

'' टूटी टाँग और जंगल नागफनी का ''

( काव्य - संग्रह - '' अक्षरों के सेतु '' से ली गई सन 1967 की रचना )


















'' टूटी टाँग और जंगल नागफनी का '' 

टूट गयी है 
चार में से एक टाँग ,
- चारपायी की 
और लगा दी हैं मैनें 
उसके नीचे तीन ईटें ,
जो अंग नहीं बन पायीं 
प्लास्टिक सर्जरी के अभाव में ,
इसलिए चारपाई जाती है जहाँ ,
वहाँ ले जायी जाती हैं अलग से ईटें भी |
ईंटें : बैसाखी : लीवर :
यहीं है संतुलन लंगड़ी ज़िन्दगी का ,
- बोझ का उठाना और रखना |

अलमारी नहीं है ,
है सिर्फ़ बाबा आदम का बक्स ,
और उसमें भी नहीं है ढंकना 
इसलिए उसका ढंकना न ढंकना 
- समान हैं दोनों ,
किन्तु 
उसमें पुरानी किताबें हैं 
कपड़ों की जगह ,
अर्थात् 
वह वहाँ नहीं है 
जिसको जहाँ होना चाहिए |
यही जानकारी है -
असंतोष , अशांति , क्रांति ,
और इसका अज्ञान :
अध्यात्मिक ज्ञान |

इजारबंद ,
फटे पाजामे का 
आज अलगनी है ,
शोभा बढ़ा रहा है जिसकी 
क्षमा माँगने वाला बीस स्थानों पर 
मेरा इकलौता कुर्ता|
सम्पूर्ति का यह ढंग :
क्या कहूँ इसे - गाँधी , मार्क्स अथवा युंग ?

कमरे में 
दस वर्ष पूर्व का कैलेण्डर 
समय के हाथों पराजित ये कालपुरुष ,
जो सात दिनों की परिधि में 
सँजोये है समस्त तिथियों को ,
पर अपना सम्बन्ध तोड़ कर दिनों से 
आज कालातीत हैं जिसकी तिथियाँ 
वर्तमान में रहते हुए ,
ख़रीदा था मैंने लक्ष्मी - पूजन के लिए ,
किंतु लक्ष्मी चित्र रह गयी ,
और तब से आज तक 
पूजता आ रहा हूँ मैं 
उलूक को |
साधारण व्यक्ति ही 
पहुँचते हैं ,
साधारणीकरण की इस स्थिति तक |

मैं यंत्र नहीं हूँ ,
पर बना दिया है यंत्रवत मुझे 
अभावों ने ,
और आज -
मैं भूख बुझाता हूँ कागज से 
और भाग्य चमकाता हूँ काली स्याही से |

बन गयी हैं बैरोमीटर 
मेरी मुट्ठियाँ ,
जो बंधती चली जाती हैं 
ठण्ड बढ़ने के साथ - साथ 
और गर्मी के साथ - साथ 
पिघलने लगती हैं |

मेरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप 
आज घूम कर रह जाते हैं 
मेरे काँटे
मैं असमर्थ हूँ 
दूसरों के काँटे घुमाने में |

मेरा ज्ञान 
परिचित है भली - भाँति
आकाश के एक - एक नक्षत्र - पिण्ड से ,
किंतु नित्य देख कर भी 
जान नहीं पाया 
आदमी को |

इतनी छोटी हो गयी हैं 
आज मेरी सीमाएँ सिमट कर ,
कि मैं जगह नहीं बना सकता 
तुम्हारे लिए भी |

किंतु बाहर 
दौड़ रही है 
ढेरों धूल हवा के पीछे 
और साथ दे रहे हैं उसका 
खडखड़ाते पत्ते ,
निश्चेष्ट खड़े हैं 
संगीहीन प्रेत जैसे तरु ,
ठकठका उठते हैं जिनके कंकाल जब - तब |

इस भयावह एकांत के ये विवर्त 
जैसे लगती चली गयी हों गाँठ - पर - गाँठ 
जिससे गुटठल होकर रह गयी है मेरी सामर्थ्य 

अनसुलझी समस्याओं के आगे 
सिर झुकाये खड़ी है बुद्धि 
अपराधिनी - सी 
और
कोई निर्णय नहीं दे पाता
न्यायाधीश के आसन पर बैठा हुआ 
- मौन |

तितर - बितर होता चला जा रहा है सब कुछ ,
किन्तु नहीं आयी है स्थिति अभी 
आत्म - घात की |

                                   - श्रीकृष्ण शर्मा 
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shrikrishnasharma696030859.wordpress.com

संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867

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