( काव्य - संग्रह - '' अक्षरों
के सेतु '' से ली गई सन 1967 की रचना )
'' टूटी टाँग और जंगल नागफनी का ''
टूट गयी है
चार में से एक टाँग ,
- चारपायी की
और लगा दी हैं मैनें
उसके नीचे तीन ईटें ,
जो अंग नहीं बन पायीं
प्लास्टिक सर्जरी के अभाव में ,
इसलिए चारपाई जाती है जहाँ ,
वहाँ ले जायी जाती हैं अलग से ईटें भी |
ईंटें : बैसाखी : लीवर :
यहीं है संतुलन लंगड़ी ज़िन्दगी का ,
- बोझ का उठाना और रखना |
अलमारी नहीं है ,
है सिर्फ़ बाबा आदम का बक्स ,
और उसमें भी नहीं है ढंकना
इसलिए उसका ढंकना न ढंकना
- समान हैं दोनों ,
किन्तु
उसमें पुरानी किताबें हैं
कपड़ों की जगह ,
अर्थात्
वह वहाँ नहीं है
जिसको जहाँ होना चाहिए |
यही जानकारी है -
असंतोष , अशांति , क्रांति ,
और इसका अज्ञान :
अध्यात्मिक ज्ञान |
इजारबंद ,
फटे पाजामे का
आज अलगनी है ,
शोभा बढ़ा रहा है जिसकी
क्षमा माँगने वाला बीस स्थानों पर
मेरा इकलौता कुर्ता|
सम्पूर्ति का यह ढंग :
क्या कहूँ इसे - गाँधी , मार्क्स अथवा युंग ?
कमरे में
दस वर्ष पूर्व का कैलेण्डर
समय के हाथों पराजित ये कालपुरुष ,
जो सात दिनों की परिधि में
सँजोये है समस्त तिथियों को ,
पर अपना सम्बन्ध तोड़ कर दिनों से
आज कालातीत हैं जिसकी तिथियाँ
वर्तमान में रहते हुए ,
ख़रीदा था मैंने लक्ष्मी - पूजन के लिए ,
किंतु लक्ष्मी चित्र रह गयी ,
और तब से आज तक
पूजता आ रहा हूँ मैं
उलूक को |
साधारण व्यक्ति ही
पहुँचते हैं ,
साधारणीकरण की इस स्थिति तक |
मैं यंत्र नहीं हूँ ,
पर बना दिया है यंत्रवत मुझे
अभावों ने ,
और आज -
मैं भूख बुझाता हूँ कागज से
और भाग्य चमकाता हूँ काली स्याही से |
बन गयी हैं बैरोमीटर
मेरी मुट्ठियाँ ,
जो बंधती चली जाती हैं
ठण्ड बढ़ने के साथ - साथ
और गर्मी के साथ - साथ
पिघलने लगती हैं |
मेरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
आज घूम कर रह जाते हैं
मेरे काँटे
मैं असमर्थ हूँ
दूसरों के काँटे घुमाने में |
मेरा ज्ञान
परिचित है भली - भाँति
आकाश के एक - एक नक्षत्र - पिण्ड से ,
किंतु नित्य देख कर भी
जान नहीं पाया
आदमी को |
इतनी छोटी हो गयी हैं
आज मेरी सीमाएँ सिमट कर ,
कि मैं जगह नहीं बना सकता
तुम्हारे लिए भी |
किंतु बाहर
दौड़ रही है
ढेरों धूल हवा के पीछे
और साथ दे रहे हैं उसका
खडखड़ाते पत्ते ,
निश्चेष्ट खड़े हैं
संगीहीन प्रेत जैसे तरु ,
ठकठका उठते हैं जिनके कंकाल जब - तब |
इस भयावह एकांत के ये विवर्त
जैसे लगती चली गयी हों गाँठ - पर - गाँठ
जिससे गुटठल होकर रह गयी है मेरी सामर्थ्य
अनसुलझी समस्याओं के आगे
सिर झुकाये खड़ी है बुद्धि
अपराधिनी - सी
और
कोई निर्णय नहीं दे पाता
न्यायाधीश के आसन पर बैठा हुआ
- मौन |
तितर - बितर होता चला जा रहा है सब कुछ ,
किन्तु नहीं आयी है स्थिति अभी
आत्म - घात की |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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(आपके Like,Follow,Comment का स्वागत् है | धन्यवाद | )
'' टूटी टाँग और जंगल नागफनी का ''
टूट गयी है
चार में से एक टाँग ,
- चारपायी की
और लगा दी हैं मैनें
उसके नीचे तीन ईटें ,
जो अंग नहीं बन पायीं
प्लास्टिक सर्जरी के अभाव में ,
इसलिए चारपाई जाती है जहाँ ,
वहाँ ले जायी जाती हैं अलग से ईटें भी |
ईंटें : बैसाखी : लीवर :
यहीं है संतुलन लंगड़ी ज़िन्दगी का ,
- बोझ का उठाना और रखना |
अलमारी नहीं है ,
है सिर्फ़ बाबा आदम का बक्स ,
और उसमें भी नहीं है ढंकना
इसलिए उसका ढंकना न ढंकना
- समान हैं दोनों ,
किन्तु
उसमें पुरानी किताबें हैं
कपड़ों की जगह ,
अर्थात्
वह वहाँ नहीं है
जिसको जहाँ होना चाहिए |
यही जानकारी है -
असंतोष , अशांति , क्रांति ,
और इसका अज्ञान :
अध्यात्मिक ज्ञान |
इजारबंद ,
फटे पाजामे का
आज अलगनी है ,
शोभा बढ़ा रहा है जिसकी
क्षमा माँगने वाला बीस स्थानों पर
मेरा इकलौता कुर्ता|
सम्पूर्ति का यह ढंग :
क्या कहूँ इसे - गाँधी , मार्क्स अथवा युंग ?
कमरे में
दस वर्ष पूर्व का कैलेण्डर
समय के हाथों पराजित ये कालपुरुष ,
जो सात दिनों की परिधि में
सँजोये है समस्त तिथियों को ,
पर अपना सम्बन्ध तोड़ कर दिनों से
आज कालातीत हैं जिसकी तिथियाँ
वर्तमान में रहते हुए ,
ख़रीदा था मैंने लक्ष्मी - पूजन के लिए ,
किंतु लक्ष्मी चित्र रह गयी ,
और तब से आज तक
पूजता आ रहा हूँ मैं
उलूक को |
साधारण व्यक्ति ही
पहुँचते हैं ,
साधारणीकरण की इस स्थिति तक |
मैं यंत्र नहीं हूँ ,
पर बना दिया है यंत्रवत मुझे
अभावों ने ,
और आज -
मैं भूख बुझाता हूँ कागज से
और भाग्य चमकाता हूँ काली स्याही से |
बन गयी हैं बैरोमीटर
मेरी मुट्ठियाँ ,
जो बंधती चली जाती हैं
ठण्ड बढ़ने के साथ - साथ
और गर्मी के साथ - साथ
पिघलने लगती हैं |
मेरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
आज घूम कर रह जाते हैं
मेरे काँटे
मैं असमर्थ हूँ
दूसरों के काँटे घुमाने में |
मेरा ज्ञान
परिचित है भली - भाँति
आकाश के एक - एक नक्षत्र - पिण्ड से ,
किंतु नित्य देख कर भी
जान नहीं पाया
आदमी को |
इतनी छोटी हो गयी हैं
आज मेरी सीमाएँ सिमट कर ,
कि मैं जगह नहीं बना सकता
तुम्हारे लिए भी |
किंतु बाहर
दौड़ रही है
ढेरों धूल हवा के पीछे
और साथ दे रहे हैं उसका
खडखड़ाते पत्ते ,
निश्चेष्ट खड़े हैं
संगीहीन प्रेत जैसे तरु ,
ठकठका उठते हैं जिनके कंकाल जब - तब |
इस भयावह एकांत के ये विवर्त
जैसे लगती चली गयी हों गाँठ - पर - गाँठ
जिससे गुटठल होकर रह गयी है मेरी सामर्थ्य
अनसुलझी समस्याओं के आगे
सिर झुकाये खड़ी है बुद्धि
अपराधिनी - सी
और
कोई निर्णय नहीं दे पाता
न्यायाधीश के आसन पर बैठा हुआ
- मौन |
तितर - बितर होता चला जा रहा है सब कुछ ,
किन्तु नहीं आयी है स्थिति अभी
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shrikrishnasharma696030859.wordpress.com
संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय
विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिला– सवाई माधोपुर ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867
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