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2.2.20

मेरे स्वप्न अहम् हारे


( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत संग्रह - '' एक अक्षर और '' से लिया गया है )












मेरे स्वप्न अहम् हारे 

हरसिंगार सबके सब मुरझाते चले गये !!
समय के धुँधलके में -
ममता के चेहरे सब धुँधलाते चले गये !
हरसिंगार सबके सब मुरझाते चले गये !!
          देहरी से बाहर 
          उस मधुऋतु के आने की 
          छाया - भर छूट गयी ,
               मन में ही घुट - घुट कर 
               सुख की दो - चार बची 
               साँसें भी टूट गयीं ,
और अन्त में 
मुझको आकर उपलब्ध हुई 
आँच बस व्यथाओं की ,
जिसको कितने अभाव दहकाते चले गये !
हरसिंगार सबके सब  मुरझाते चले गये !!
          अब भी 
          स्मृत हैं मुझको 
          थे कितने प्यारे क्षण ,
          कितने वे हिले - मिले 
          पर कितने न्यारे क्षण ,
               जिनमें कुछ ऐसे भी 
               सहयात्री मिले मुझे -
पहचाने होकर 
जो अनजाने बने रहे ,
अनजाने थे 
पर पहचाने - से भावों को दुहराते चले गये !
हरसिंगार सबके सब मुरझाते चले गये !!
          तब से अब तक 
          बिछुड़ी दमयन्ती - सी सुबहें ,
          साँप - साँप करती - सी 
          उफ़ , सामन्ती घामें ,
               रातों के रंग - राती 
               बुझे लौह - सी शामें ,
आ - आ कर 
मेरे उस बीते का सुख ढाते चले गये !
हरसिंगार सबके सब मुरझाते चले गये !!
          अब मेरे सम्मुख है 
          नरभक्षी सूनापन ,
          शेष बचा है केवल 
          टूटा तन ,
          हारा मन ,
               मेरे सब स्वप्न 
               अहम् हारे ,
हो नत - मस्तक 
अन्तहीन सीमा को अँधराते चले गये !
हरसिंगार सबके सब मुरझाते चले गये !!

                - श्रीकृष्ण शर्मा 
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www.shrikrishnasharma.com

 संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867

    

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