Followers

11.2.20

कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल ' : भीतर भी - बाहर भी ( भाग - 2 )


          ( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' एक नदी कोलाहल '' से लिया गया है )


कुमार रवीन्द्र - ' एक नदी कोलाहल ' भीतर भी - बाहर भी ( भाग - 2 )
                             ( भाग - 1 से आगे ) - 

इन सभी गीतों में कवि की संसक्ति और प्रतिबद्धता अपने परिवेश और शाश्वत मूल्य - बोध , दोनों से समान रूप में है और यही बात इन गीतों को एक ओर तो इन्हें फ़िलवक्त का एक प्रामाणिक दस्तावेज बनाती है और दूसरी ओर उन्हें शाश्वत मानुषी आस्तिकता से जुड़ा भी रखती है |
          अपने पिछले संग्रह  ' फागुन के हस्ताक्षर '  के आत्म - कथ्य में श्रीकृष्ण शर्मा ने सन 1955 में रायसेन जिले के सिलपुरी गाँव के अपने प्रकृति से सम्मोहक संसर्गों का जिक्र करते हुए कहा है - यथार्थ की भांति प्रकृति ने भी मेरी सर्जनात्मक कल्पना को सदैव सहज ही उद्दीप्त किया है | '  किन्तु  ' एक नदी कोलाहल '  कवि के अन्तर्मन में बसी वह बेतवा नदी है , जिसके  दरस - परस से वे आज से इक्यावन वर्ष पूर्व संसक्त एवं आप्यायित हुए थे | यह तो है उनकी अंतरानुभुतियों की नदी , जिसमें यथार्थ अनुभव और उनसे उपजे आंतरिक कोलाहल - ही कोलाहल हैं | संग्रह के सैंतालिस के सैंतालिस गीत इसी अन्तःप्रवाहित नदी के कोलाहल की आख्या कहते हैं | फ़िलवक्त का यथार्थबोध इन गीतों में चुटीला और पैना होकर उभरा है | संग्रह के पहले ही गीत में कवि - मन यथार्थ के इस कोलाहल को वाणी देता है - 
            ' पाँव के नीचे आ / पगडंडी टूट गयी 
            आहट तक नहीं हुई / ख़ामोशी छूट गयी 
            मन होता / तोडूँ इस गहरे सन्नाटे को 
            पर मिलता वृत नहीं 
                          000
            मरुथल के भ्रम जन्मे / कुंठाएँ बंजर की 
            रीढ़ तोड़ते अभाव / सहती काया घर की 
            कैसा यह दौर / जहाँ / जगता भय सभी कहीं ' 
          ये मरुथल के भ्रम , बंजर की कुंठाएँ और एक सर्वव्यापी भय यानी आतंक का परिवेश -  ' यही तो है जो आज के दौर को व्याख्यायित करता है | और यही तो है वह पंथहीन यथार्थ - भूमि , जिस पर चलने को कवि अपने को विवश पाता है | उसके पास  ' प्रश्न हैं / पर नहीं उत्तर हैं '  क्योकि वह पाता है कि  ' दृष्टि अपनी / दृश्य औरों का / कह रहे हम / गर्व से सब / कथ्य औरों के | '  ' अपना है बचा क्या ' - इसी त्रासक एहसास को हम निम्न पंक्तियों में भी पाते हैं -
           ' सामने परिदृश्य में / फूहड़ - छिछोरी दौड़ 
           पीछे छूटती जाती ऋचाएँ
           अहम् की सुविधा - भरी हैं / धूर्त - कायर मंत्रणाएँ
           बेरहम , त्रासद , जरायम / औ ' बघिर परिवेश 
           सहते हम विवश / निरुपाय , अक्षय '
          यह विवशता , यह निरुपायता , यह अक्षमता आज  ' बेरहम , त्रासद , जरायम औ '  बघिर परिवेश में हर संवेदनशील मन की है | आज की अपसांस्कृतिक भोगवादी विज्ञापनी माया से ग्रस्त जीवन - शैली का बड़ा ही सशक्त आकलन किया है कवि ने  ' निर्वसन संस्कृति खड़ी ' शीर्षक गीत में | देखें उसी गीत का एक अंश - 
           ' छलावों के / और धोखों के पड़ावों में /
           रह रहे हैं हम तनावों में
           लौह औ ' सीमेंट की काया / राक्षसी विज्ञापनी माया 
           भोगवादी उत्सवों के शामियानें / कोलतारों से भरे /
           ख़ूनी तालाबों में 
                            000 
          चेहरे / खोये मुखोटों में / निर्वसन संस्कृति खड़ी /
          घर और कोठों में 
          ज़िन्दगी कुछ के लिए / आस्वाद जिस्मों का 
          और ढोते साँस को कुछ / जलते अभावों में '
          आसुरी सम्पदा के तहत सांस्कृतिक अपघात की यह दुर्घटना एक ओर , और दूसरी ओर प्राकृतिक क्रियाओं का विपर्यय और तज्जन्य आपदाएँ , जो भी अधिकांशतः मानुषी विपर्यय का ही पर्याय हैं ; और इन दोनों के बीच एक अतृप्त प्यास लिए कवि - मन | जरा देखें तो -
                                   ( आगे का अगले भाग में )

             - कुमार रवीन्द्र 
-------------------------------------------------------------------------

संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867 
                      

No comments:

Post a Comment

आपको यह पढ़ कर कैसा लगा | कृपया अपने विचार नीचे दिए हुए Enter your Comment में लिख कर प्रोत्साहित करने की कृपा करें | धन्यवाद |