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16.2.20

अकेलेपन का भय















( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' एक अक्षर और '' से लिया गया है )

अकेलेपन का भय
इस बरामदे में 
कुर्सी पर मैं एकाकी 
बैठा खुद की गढ़ी हुई सीमा में 
बंदी मुझे बनाये हैं बाँसों की बाढ़ 
खड़ी हुई है मुझे घेर कर 
- खपच्चियों से निर्मित ये दीवार |

मैं बैठा 
पर इसके पार राह चलती है 
चहल - पहल है , भीड़ - भाड़ है , कोलाहल है 
मुझसे परे 
- सभी की एक अलग बस्ती है 
देख रहा हूँ मैं नितांत अजनबी - सरीखा 
- भाव रहित सा 
असम्प्रक्त जो किये जा रहा मुझको 
- सबसे औ ' बाहर से -
वह मेरा व्यक्तित्व अहम् है 
मेरे पिछले अभ्यासों से खचित 
- अलक्षित लक्ष्मण - रेखी तार |

जब - तब शायद आकर्षित हो 
या कि प्राप्त परिचय करने को 
अथवा मेरे आश्रय में मन बहलाने को 
या अपने विद्रोही जीवन का सूना एकांत मिटाने
औ ' मुझसे दुलार पाने को -
कोलाहल से भाग 
असम्बंधित स्वर मुझ तक आ जाते हैं |
और अपरचित वे 
मेरे गम्भीर मौन के सम्मुख 
बच्चों जैसे नहीं ठहर पाते हैं ,
निस्सहाय आस्था - हारे - से वे बेचारे 
मनमारे डगमग गति से फिर 
उल्टे पाँवों मुझसे दूर चले जाते हैं |

बहुत चाहता हूँ मैं -
उनसे बात करूँ कुछ 
आशा के औ ' विश्वासों के भाव भरूँ कुछ ,
उन्हें आवाज लगा कर रोकूँ 
मैं न उन्हें ऐसे जाने दूँ |
पर मिथ्या अभिमान बड़प्पन आड़े आता 
कुंठाएँ रच मूक बनाता
और ' और ' फिर झूठी लाचारी का एक बहाना 
लेकर 
अनटेरे ही रह जाता हूँ 
- मैं बैठा इस पार |

ये वैयक्तिकता का झूठा पाश 
कि ये कच्चा आश्वासन
ढह जाता आधारहीन - सा बिना नींव - सा 
   
जब मेरे अनजाने ही 
घुस आता है भीतर सूनापन ,
अट्टहास करने लगता है 
मुझे घेर कर जहरीला तम 
गूँगी छायाओं का होने लगता नर्तन |

जाने किस अनचीन्हे भय से 
हो जाता है मुर्च्छित - सा मन ,
- उस अथाह में मेरी ये सम्पूर्ण चेतना डूबी जाती ,
- मेरे प्राण पोर में आते ,
- आत्मा बहुत - बहुत घबराती ,
- मेरी चीख़ हाय , अनजन्मी ही मर जाती |

हे प्रभु !
यह कैसी विपत्ति है 
यह कैसा मेरा निष्कासन 
जीवन के सौ - सौ रंगों से 
यह कैसा मेरा निर्वासन ?

केवल अतल - अछोर - भयावह 
अँधियारे का ज्वार ,
जीते - जी ही 
मेरे औ ' जीवन के बीच दरार |

किन्तु 
अचानक 
कहीं पास ही कुत्ता रोया ,
- लगा कि जीवन मरा नहीं है ,
अनस्तित्व के क्षण में भी 
है वह अपना अस्तित्व बचाये ,
मुझको यह अहसास हुआ -
- कुत्ता यह चाहे 
किन्तु एक प्राणी तो है यह ,
- भले रुदन ही सही ,
मगर जीवित प्राणी की वाणी तो यह |
इसके स्वर ने ही तो -
मुझको है अथाह शून्य से बचाया ,
अनजाने भय से यह मुझको बाहर लाया ,
मेरी दुर्बलताओं को बल दिया ,
टूटती आस्थाओं में प्राण जगाया |

लगा 
कि मैंने मर कर 
फिर यह जीवन पाया 
इस स्वर से ही |

इसीलिए 
आभारी हूँ मैं 
इस स्वर के प्रति ,
- भले यह व्यथित - आशंकित - भयग्रसित 
करुण चीत्कार |

- श्रीकृष्ण शर्मा 
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 www.shrikrishnasharma.com

संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867

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