यह नवगीत , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " एक नदी कोलाहल " ( नवगीत - संग्रह ) से लिया गया है -
होरी – सा बुझा हुआ बैठा
भीड़ में मिले थे हम दोनों ,
कह सके नहीं जो था कहना !
फिर एक बार जो बिछुड़े तो ,
खो गया कहीं मन का लहना !!
फिर दर्द लिये वह बिछुड़न का
,
आधी साँसों से राह चले !
आशाओं के बादल पिघले ,
वेदना – व्यथित अँधियार पले
!!
रंगों ने चाहा बहलाना ,
रूपों ने चाहा उलझाना !
पर बाबर – जैसा रहा मुझे ,
फिर समरकन्द औ’ फरगाना !!
इच्छाएँ सारी ज़िबह हुई ,
सब सपने भुने काढ़ावों में !
होरी – सा बुझा हुआ बैठा ,
तुम बिना न आग अलावों में !!
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- श्रीकृष्ण शर्मा
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
बहुत सटीक
ReplyDeleteबहुत - बहुत आभारी हूँ ,कि आपको ये रचना बहुत पसंद आई आदरणीय शास्त्री जी | आपसे अनुरोध है कि आप यदि इस ब्लॉग में अपनी अनमोल रचनाएँ भेजें तो हम सभी को आपकी रचनाएँ पढ़ने का अवसर प्राप्त हो सकेगा |
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