यह गीत , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -
समय साँप के खाये – जैसा
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँस सिंदूरी |
हँसी – खुशी की गरमाहट को
ठंडक ने गहरे दफनाया ,
चहल – पहल ही नहीं , सभी को
सन्नाटे ने सुन्न बनाया ;
सूरज अभी – अभी डूबा पर ,
धूप हुई मृग की कस्तूरी |
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी |
कुहरे के मोटे परदे के
पार नहीं जाती हैं आँखें ,
किन्तु टंगी रह गयीं दृष्टि
की
चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के खाये – जैसा ,
कैसे कटे रात की दूरी |
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी |
सत्याग्रह करती हैं , मन के
द्वारे अनागता इच्छाएँ ,
कब तक अँजुरी भर सपनों से
हम अपने अभाव दफनाएँ ;
चढ़ी ज़िन्दगी के खाते में ,
सिर्फ अँधेरे की मजबूरी |
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी |
लेकिन अब भी तो कोल्हू पर
निशि भर खूब जाग होती है ,
सच है , वहीं लोग जुड़ते हैं
जहाँ कि एक आग होती है ;
यही आग तो कम करती है
मानव से मानव की दूरी |
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी |
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- श्रीकृष्ण शर्मा
संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत - बहुत धन्यवाद आदरणीय आलोक सिन्हा जी |
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