इस लेख को कवि श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " मेरी छोटी आँजुरी " ( दोहा - सतसई ) से लिया गया है -
मेरी छोटी आँजुरी
आस्थाओं का हिमवान
( भूमिका ) भाग - 5
भाग - 4 का अंश
इस प्रसंग के सभी दोहे एक
से बढ़कर एक हैं , परन्तु उद्धरण प्रस्तुत करने की सीमा है | अतः एक दो नमूने देखिए
और बताइए कि समूचे दोहा – संसार में इस
जोड़ के दोहे और कितने हैं –
आँखों में सागर भरे , मन पर
धरे पहाड़ |
देह हुई मरुथल मगर , फिर भी फोड़ें हाड़ ||
भाग - 5
आँखों में सागर भरे , मन पर
धरे पहाड़ |
देह हुई मरुथल मगर , फिर भी
फोड़ें हाड़ ||
मुख पर ऐसा क्या लिखा , देख
रहे जो घूर |
संघर्षों की दासतां असफलताए
क्रूर ||
लंगड़े लूले हो गए , जवां
मर्द विश्वास |
मुँह के बल औँधे पड़े , सपनों
के आकाश ||
अक्षत रोली दूब से , खूब किया
अभिषेक |
हँसा नहीं सौभाग्य औ’ मिटा
नहीं दुर्लेख ||
प्राणों से जुड़ता रहा , हर
मुर्दा अहसास |
साँसों के संगी रहे पीड़ा ,
आँसू त्रास ||
आँखों से गिरता रहा , अपनेपन
का दर्द |
देख – देख हँसते रहे , जिनके
मन थे सर्द ||
अफ़वा साजिश हादसे , लोहे की
दीवार |
खड़े अकेले हम लिये , जंग लगी
तलवार ||
हुए बेरुखे स्नेह – दुख
बन्धक सारे गीत |
होरी – सा जीवन गया , स्वप्न
देखते बीत ||
सहते तन की ही नहीं मन की भी
हम मार |
एक पेट ने कर दिया , हमें
बहुत लाचार ||
सटीक और सजीव आत्माभिव्यन्जक दोहों के
इसी मोड़ पर आकर यह सूचित करना मुझे आवयश्क लगता है कि कवि अपने अतीत के परिवेश को
स्मरण कर जिस वेदना से कराह उठता है , वह समूचे मानव ह्रदय की विकलता को समेटे हुए
है | ‘ संग साथ जो थे कभी ’ शीर्षक में यही कुछ है |
कहे रात भर खोजते , हम सपनों
के गाँव |
किन्तु न मिल पाये कहीं ,
बचपन के वे ठाँव ||
संग साथ थे जो कभी , बन
लंगोटिया यार |
वे कपूर से उड़ गये , सात
समन्दर पार ||
देख रहा अब भी हमें , वह
सपनीला चाँद |
भोर न जिसका गद्य में , कर
पायी अनुवाद ||
रास नहीं आये हमें , दुनियाँ
के दस्तूर |
दिल के हाथों हम रहे , हैं
सदैव मजबूर ||
एक दर्द आँसू बना , एक दर्द
संगीत |
एक दर्द कसका सदा , बनकर मन
का मीत ||
लगता है रणक्षेत्र है , गंगा
जमुन दोआब |
जब देखो तब आँख में , आ जाता
सैलाब ||
रात रात भर गूँजता , हमें
दर्द भड़भूंज |
दिन भर हम कटते रहे , जैसे
हों तरबूज ||
रात रात भर हम रहे , सपनों
में महफूज |
फिर दिन भर दुनते रहे ,
सपनों की अनगूँज ||
श्रीकृष्ण शर्मा जी के उपर्युक्त दोहों
में शब्द प्रयोग की कुशलता ने काव्य को जो रुतवा प्रदान किया है , वह उन्हें अमर
कृतित्व की श्रेणी में ला देता है | हिन्दी के मध्यकाल में अनेक दोहाकार हुए हैं
और आज तक नये दोहाकारों की एक लम्बी कतार लिख – लिखकर हिन्दी की सेवा कर रही है
किन्तु हजारों की तादाद में न लिखकर सीमित संख्या में लिखी उपर्युक्त पंक्तियों
में मर्म को छूने और झकझोरने की जो ताकत है , उर्जा है , वह अक्सर देखने में नहीं
आती | किसी महायोगी की रचना मनोयोग से पढ़े या सुने बिना समझ में नहीं आती |
समीक्षा या आलोचना उसमें रूचि जगाने भर का काम कर सकती है , किन्तु आजकल किसी को
किसी की रचना पढ़ने या सुनने की न फुर्सत है न ललक | सभी अपनी – अपनी गाना चाहते
हैं | मैं अपनी ही कहूँ कि सबसे ज्यादा डर मुझे कविता पढ़ने से ही लगता है | ख़ासकर
तब जबकि उस पर कुछ लिखने की जरुरत पड़े | यदि कवि व काव्य दमदार हुआ तो आपको बेचैन
किये बिना मानेगा नहीं | कवि ने जो भला – बुरा सहा वह उसका भाग्य था , अब उसकी
कविता यदि आपको भी भीतर तक हिला दे और विकम्पित करके छोड़ दे तो आप अपनी अवस्था का
विचार अवश्य रखें क्योंकि तन और मन से पुख्ता होना अच्छी कविता को झेलने की
अनिवार्य शर्त है | **
(
इससे आगे का भाग , भाग – 6 में )
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संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
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