इसे , श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -
कभी – कभी बड़ा अच्छा लगता है , जब हम अपनी जिन्दगी के तवील और मुसलसल सफर पर चलते हुए कुछ लम्हात के लिए रुकते हुए पीछे मुड़कर यह देखने लगते हैं कि हमने कितना रास्ता तय कर लिया , कि उस रास्ते में कितने मोड़ आये और किस मोड़ पर हम किस – किससे मिले और बिछुड़े , कि उन मिलने – बिछुड़ने वालों में कौन – कौन हमारे सच्चे हमसफ़र थे | यह पीछे मुड़कर देखना चर्म – चक्षुओं से नहीं स्मृतियों की दृष्टि से ही संभव है | स्मृतियों की यह भावमयी दृष्टि पृष्ठभूमि में चले गए क्षणों , स्थितियों , आत्मीय जनों और सम्बन्धियों सुहृदों तथा मित्रों को हमारे सम्मुख लाकर खड़ा कर देती है | बीते हुए वे दिन कुछ इस तरह लौट आते हैं जैसे कोई बहती हुई नदी अपनी एक – एक लहर के साथ पीछे वापस लौट आई हो | उन प्रत्यागत क्षणों के परिवर्तन से मन में वही पुलक , वही हर्ष – विभोरता होती है , जो झंझावात में बिछुड़े हुए पल्लव – पत्रों की पुनः शाख – संलग्नता देखकर | यों, न नदी पीछे लौटती हैं और न ही अतीत कभी वर्तमान का आकार प्राप्त करता है |
‘ फागुन के हस्ताक्षर ’ पर कुछ लिखने
के बहाने आज मैं अर्द्ध शताब्दी से भी अधिक वर्षों की विगत – वीथियों में लौटना
चाह रहा हूँ जहाँ एक गीत – संग्रह के रचनाकार के साथ मेरा प्रथम साक्षात सम्पर्क
हुआ था | सन 1950 का अगस्त या सितम्बर का कोई मेघाच्छन्न वर्षा – दिवस रहा होगा वह
, तब मैं भाई जगत प्रकाश चतुर्वेदी , वीरेन्द्र सिंह परिहार और दीनानाथ श्रीवास्तव
इण्टरमीडिएट प्रथम वर्ष के , आगरा कॉलेज में , सहपाठी – मित्र बन चुके थे |
कक्षाएँ समाप्त हो जाने पर हम चारों ही नियमपूर्वक टॉमसन हॉस्टल के 11 नम्बर कमरे
में लगभग 5 – 6 बजे तक जमते , साथ – साथ पढ़ते और एक दूसरे की रचनाएँ सुनकर आनंद
लेते और उन पर विमर्श भी करते थे | वीरेन्द्र परिहार को कहानियाँ लिखने का शौक था और
मैं तथा जगतप्रकाश गीत लिखते थे | हम दोनों की देखा – देखी और प्रेरणा से दीनानाथ
भी गीत लिखने का मश्क करने लगे थे | जगत भाई के रूम – मेट थे राम बहादुर महेरे ,
जो हम लोगों से पढ़ने में तीन कक्षा आगे थे , किन्तु जगत भाई से दो वर्ष छोटे थे |
मैत्री पूर्ण सम्बन्धों में , आयु की वरिष्ठता अथवा कनिष्ठता के अपने रुढ़ार्थ को
खोकर , सभी सुहृद – समवयस्क आपस में एकमेक हो जाते हैं | तो उसी वर्षा – भीगे दिन
में टॉमसन हॉस्टल के 11 नम्बर कमरे में भाई श्रीकृष्ण शर्मा से , वीरेन्द्र परिहार
और दीनानाथ श्रीवास्तव का और मेरा प्रथम परिचय हुआ था | हल्के नील रंग की पूरी
आस्तीन की कमीज और लठ्ठे का पायजामा पहने , बारिश में तर – ब – तर हए वे कमरे में
प्रविष्ट हुए थे | भाई जगतप्रकाश ने हम सबका परिचय कराते हुए बताया था कि
श्रीकृष्ण हाई स्कूल तक एम. डी. जैन इण्टर कॉलेज आगरा में उनके सहपाठी और मित्र
रहे हैं , साथ ही वे गीत और कविता लिखने में भी अभिरुचि रखते हैं | पारिवारिक परिस्थितिवश
वे अपना अध्ययन निरन्तर जारी नहीं रख पाये और अब साहित्य रत्न भण्डार में
महेन्द्रजी के यहाँ प्रूफ – रीडिंग का कार्य कर रहे हैं | थोड़ी देर की औपचारिक
बातचीत के बाद चतुर्वेदी , श्रीकृष्ण शर्मा और मैंने एक – एक गीत भी सुनाया था |
मैंने और श्रीकृष्ण ने तहत में अपने गीत पढ़े थे और भाई जगतप्रकाश ने सस्वर गायन
किया था | उस दिन की वह औपचारिक मुलाक़ात आगे चलकर लगभग रोज जी गीत गोष्ठी में
तब्दील हो गयी | हम लोगों की ये गोष्ठियाँ टॉमसन हॉस्टल के अतिरिक्त वर्द्धमान
हाउस , चौराहा धाकरान और ईदगाह कॉलोनी – जहाँ क्रमशः दीनानाथ , श्रीकृष्ण और मेरे
निवास थे – में भी सम्पन्न होने लगीं | **
- देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '
( आगे का , भाग – 2 में
पढ़ें )
संकलन – सुनील कुमार शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर
– 9414771867.
पूरा लेख दो बार पढ़ा । आदरणीय जगत प्रकाश जी व सोम ठाकुर जी से मैं भी परिचित हूं । वह अक्सर बुलन्दशहर घर आया करते थे । जब जब देखा ताज किसी की सुधियां घिर आईं और ये अखियां भर आईं ये गीत मैंने घर पर ही सुना था । लेख पढ़ कर सच बहुत अच्छा लगा ।
ReplyDeleteआदरणीय आलोक सिन्हा जी , आप की बातें पढ़ कर मेरी आँखें नम हो गईं | मुझे लगा की मैं पिता श्री की आत्मा से मिल रहा हूँ | आपका बहुत - बहुत आभारी हूँ |
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