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13.12.20

कवि देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' - " “ ते हि नो दिवसाः गताः ” और “ फागुन के हस्ताक्षर ” ( भाग - 6 )

 




“ ते हि नो दिवसाः गताः ”  और “ फागुन के हस्ताक्षर ”


... “ जीवन के कटु और कठोर यथार्थ को मैंने प्रत्यक्षतः देखा ही नहीं , भोग भी है | अपनी उन्हीं संवेदनात्मक अनुभूतियों को सहज और सरल भाव से मैं अपने गीतों में पिरोता रहा हूँ | ”


 

( भाग – 6 )

 

श्रीकृष्ण ने परोक्ष रीति से नवगीत पर भी अपनी टिप्पणी इन शब्दों में व्यक्त की है – “ नई कविता के झंडाबरदारों ने गीत की कभी मृत्यु की घोषणा की थी , किन्तु गीत आज भी अपनी पूर्ण त्वरा के साथ मौजूद है और जब तक पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व है , उसके मन में भावनाएँ और संवेदनाएँ हैं , तब तक गीत मर नहीं सकता | हाँ . समय के साथ उसके रूपाकार में परिवर्तन होता रहा है , भविष्य में भी होगा , किन्तु गीतात्मकता उसका मूल स्वर है जो सदैव रहना है | वायवी कल्पना – लोक से निकल कर वह जीवन के निकट आया है , आम आदमी के दुःख – दर्द को उसने अपनाया है और उसके सरोकारों को वाणी दी है | आधुनिक भाव – बोध के साथ सटीक ऐन्द्रिय बिम्बों और जीवन प्रतीकों ने गीत को एक नई एषणा , एक नई आभा दी है | नयी कविता के समानांतर गीत के इस स्वरुप को ‘ नवगीत ’ कहा जा रहा है | किन्तु नाम में क्या रखा है | ‘ गीत ’ को किसी भी संज्ञा से अभिहित किया जाये , ‘ गीत ’ अन्ततः ‘ गीत ’ ही है | ” जब हम इन गीतों से गुज़रते हैं तब इसी निष्कर्ष पर पहुँचते है कि श्रीकृष्ण की कथनी और करनी ( विचार औए अभिव्यक्ति ) में एकरूपता रही है | उन्होंने जो जिया और भोग है , उसी को गाया है | जैसे सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व में लक्षित होती है , वैसी ही उनके गीतों की अकृत्रिम कला में भी | शिल्प उनकी कला में ‘ साध्य ’ बन कर नहीं अपितु ‘ साधन ’ बन कर प्रस्तुत होता है | ऐसी स्थिति में उनके गीतों को कोई ‘ गीत ’ , नवगीत ’ अथवा ‘ गीत – नवान्तर ’ जो कुछ भी विशेषण दें , उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी | मैं अपनी सूझ , समझ और सुविधा के लिए इन गीतों को ‘ नवगीत ’ ही कहना चाहूँगा |

          साँझ की उदासी में आम आदमी दिनभर के संघर्ष के बाद थक – टूट कर अकेला पड़ जाता है | सारे दिन की भाग – दौड़ के पश्चात् लेखा – जोखा करने पर उसे महसूस होता है कि और दिनों की तरह आज का दिन भी घाटे का खेल खेलते हुए गुजर गया | जो उत्साह , उल्लास और सक्रियता सुबह – सुबह अनुभव हुई थी , वह सब रोजी – रोटी की जुगाड़ करने में छीज गयी , जैसी समूची प्राण – शक्ति ही निचुड़ गयी हो | इस रिक्तता और व्यर्थता – बोध को व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं –

        सूरज ने मुझको फिर धुंधलाता छोड़ दिया |

        सूर्यमुखी मेरा फिर मुरझाता छोड़ दिया ||

                        00

        आह , सिर्फ़ जीवित हैं बोझिली साँसें भर ,

        जगा रहा अस्थिर मन प्रेत – सा प्रतीक्षाएँ ;

        शेष सभी जो कुछ था रात ने निचोड़ लिया |

                                  ( अवशिष्ट )

          स्वतंत्र होने पर आम आदमी ने खुशहाली के जो सपने देखे थे , वे बढ़ते हुए शोषण , भ्रष्टाचार नेतृवर्ग के मिथ्या आश्वासनों और पंचवर्षीय विकासात्मक योजनाओं के खोखलेपन और पूँजीवाद के आसुरी आघात ने चूर – चूर कर दिये | विपन्न व्यक्ति और विपन्न हो गया तथा जो सम्पन्न था वह सम्पन्न्तर होता चला गया | अवशता और दुर्व्यवस्था के चौराहे पर खड़ा आम आदमी लुटता रहा , कहाँ जाये , किससे गुहार करे अपने बचाव के लिए | देखिए इस विडम्बना को श्रीकृष्ण किस तरह वाणी देते हैं - **

( आगे का भाग , भाग – 7 में पढ़िए )   


                                          - देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '


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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.

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