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14.12.20

कवि देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र ' - “ ते हि नो दिवसाः गताः ” और “ फागुन के हस्ताक्षर ” ( भाग - 7 )

 इसे श्रीकृष्ण शर्मा की पुस्तक - " फागुन के हस्ताक्षर " ( गीत - संग्रह ) से लिया गया है -





“ते हि नो दिवसाः गताः”  और “फागुन के हस्ताक्षर”


अवशता और दुर्व्यवस्था के चौराहे पर खड़ा आम आदमी लुटता रहा , कहाँ जाये , किससे गुहार करे अपने बचाव के लिए | देखिए इस विडम्बना को श्रीकृष्ण किस तरह वाणी देते हैं –

 

( भाग – 7 )

 

               भोर का पीकर जहर अब चाँदनी की

          देह नीली पड़ रही है |

                      00

          रात के अपराध पर अब तारिकाएँ

          आत्महत्या कर रही हैं |                                                      ( चाँदनी की देह )

अथवा –

          उजियारा गिरा

          थका – हारा |

                चलता दिन थमा ,

                हवा सुट्ट खड़ी ,

                भुच्च अँधेरे की

                वह धौल पड़ी ,

           टूट गया ,

           हाथों से पारा |

           उजियारा गिरा

                किरचों – किरचों

                चुप्पी बिखरी ,

                शातिर सन्नाटे की

                ठकुराइस पसरी ,

            पर ढिबरी धुंधलाती ,

            आँखों ले भिनसारा |

            उजियारा गिरा

                       ( चलता दिन थमा )

          श्रीकृष्ण शर्मा ने इन गीतों को लिखते समय ज़िन्दगी को ऋतुओं के माध्यम से देखा है | वर्षा उन्हें विशेष रूप से आकर्षित करती है | ‘ सावन – धन ’ , ‘ ये बदरा ’ , ‘ झिनपिन – झिनपिन ’ , ‘ कालिदास की आर्द्रव्यथा ’ , ‘ गीले क्षण ’ , ‘ धारासार बरसते बादलों को देखकर ’ और ‘ टप – टप – टप ’ शीर्षक गीत इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं | नवगीत में आमतौर से वर्षा की अपेक्षा ग्रीष्म ऋतु ने रचनाकारों को अधिक आकृष्ट किया है क्योंकि धूप जीवन संघर्ष का सर्वाधिक ज्वलन्त प्रतीक होती है | ‘ वर्षान्त के बिन बरसे बादलों को देखकर ’ , ‘ तार – तार छाया की चुनरी ’ , ‘ टेसुई बादल पड़े काले ’ , ‘ कहाँ अब वह गुलाबी भौर ’ , ‘ ग्रीष्म की दोपहर ’ शीर्षक गीतों में कवि ने हार न मानने वाली जिजीविषा को बड़े सहज स्वाभाविक ढंग से रेखांकित किया है | उन्हें केवल ऋतु वर्णन के गीत कह कर नहीं टाला जा सकता | प्राकृतिक परिवेश के साथ शर्माजी का लगाव प्रारम्भ से ही रहा है | यथार्थ की भांति इनकी सर्जनात्मक कल्पना भी प्रकृति से ही सह्जोत्थित कही जा सकती है | एक उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य है –

         “ इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का ,

           काला बादल चमगादड़ – सा उल्टा लटका ;

           शंख – सीप नक्षत्र रेत में –

            हैं पारे से –

            साँझ – सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,

            भरी हुई है अँधियारे से | ”

                              ( झील रात की )

          श्रीकृष्ण शर्मा के गीतों की भाषा उनके सरल – सहज व्यक्तित्व की भांति आम बोलचाल की है | उसमें यदि एक ओर ‘ सुट्ट ’ , ‘ भुच्च ’ , ‘ धौल ’ , ‘ ढिबरी ’ , ‘ बखेड़े ’ , ‘ ठकुराइस ’ , ‘ गैले ’ , और ‘ भिनसारा ’ जैसे देशज शब्दों की बहुलता है तो ‘ ब्लैक होल ‘ , ‘ बाथरूम ’ , जैसे अंग्रेजी और ‘ जहर ’ , ‘ शातिर ’ , ‘ इबारत ’ , ‘ खुशहाली ’ , ‘ काफ़िल ’ , ‘ मजबूरी ’ , ‘ किस्मत ’ , ‘ तकलीफ ’ , ‘ हिम्मत ’ , ‘ आदम ’ , ‘ गिला ’ , ‘ गुजरान ’ , और ‘ तन्हाईयाँ ’ जैसे ढेरों उर्दू – फ़ारसी के शब्द रिल – मिल गये हैं | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि श्रीकृष्ण के काव्य – शिल्प का झुकाव अभिधा की ओर उन्मुख है | बिम्ब – योजना की दृष्टि से उनके गीत अत्यन्त समृद्ध हैं | इन गीतों में ‘ अँधियारे में भटके हुए दिन के पाँव ’ , ‘ ठंडे पड़ते स्पर्श ’ , ‘ मरी हुई ध्वनियाँ ’ , कुण्ठाओं के सपने जैसे खिले कमल ’ , रात के अपराध पर आत्महत्या करती हुई तारिकाएँ ’ और ‘ चमगादड़ की तरह उल्टा लटका हुआ बादल ’ जैसे राशि – राशि बहुविध बिम्बों की योजना विद्यमान है |

          पिछले दिनों जिस प्रकार छ्न्दोमुक्त नयी कविता लिखने की बाढ़ आयी थी , ***

( इससे आगे , भाग – 8 में पढ़िए )      


                 - देवेन्द्र शर्मा ' इन्द्र '        

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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.


4 comments:

  1. बहुत बहुत सुन्दर रचना । विवरण प्रस्तुति के लिए ह्रदय से आभार ।

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  2. आपको अच्छा लगा यह जानकार बहुत अच्छा लगा | इसके लिए आपको बहुत - बहुत धन्यवाद आदरणीय आलोक सिन्हा जी |

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  3. बहुत सुन्दर रचना , सरल सहज चित्रण चलता दिन जब थका, सुन्दर विवेचना भी

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  4. बहुत - बहुत धन्यवाद , आदरणीय सुरेन्द्र कुमार शुक्ला जी |

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