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21.10.20

प्रसिद्ध कहानीकार पवन शर्मा की कहानी - " सिगरेट के बुझे हुए टुकड़े " (भाग-2)

 यह कहानी , पवन शर्मा की पुस्तक - " ये शहर है , साहब ! " से ली गई है - 











          सिगरेट के बुझे हुए टुकड़े 

                                 ( भाग – 2 )

 

भाग - 1 से आगे

          “ तुझे शुचि की याद है या भूल गया ? ” कहते हुए मैं हौले से मुस्कराया |

          “ हिष्ट ! ” नरेश भी मुस्करा पड़ा |

          मैंने देखा की नरेश की आँखों में चमक दुगनी हो गई |

          “ मुझे याद है कि तू रोज ही सिविल लाइन्स की पुलिया पर जाकर बैठता था – शुचि के लिए | ” रुई के फाहों को देखते हुए मैंने बोला |

          “ मेरे सारे प्रेम का बुखार उसके भाई ने एक ही घूँसे में उतार दिया था | नरेश बोला , फिर मुस्कराया , “ वन साइडेड लव ! ऐसे ही घूँसे पड़ते हैं | ”

          बौछारें बंद हो चुकी थीं | हम लोग टिन के शेड से निकलकर गीली सड़क पर चलने लगे | फिर से वही चुप्पी हम दोनों के बीच |

          थोड़ी दूर चलने के बाद हम सड़क से बाईं ओर मुड़कर एक गली में घुस गए | तीन मकान के बाद घर आ गया | मैंने पेण्ट की जेब में से चाबी निकालकर दरवाजे पर टंगा ताला खोला | कमरे में अँधेरा था | बिजली का स्विच दबाकर ट्यूबलाईट जलाई | कमरे में दूधिया रोशनी हो गई |

          नरेश जुटे – मोज़े उतारकर बिस्तर पर लेट गया | मैंने कपड़े बदले और लुंगी पहनकर बाथरूम में फ्रेश होने चला गया | फ्रेश होकर आया तो देखा कि नरेश अभी भी बिस्तर पर लेटा हुआ है | शायद वह थक गया है |

          तौलिये से अपने हाथ – पैर पोंछता हुआ मैं बोला , “ चल , तू भी फ्रेश हो ले , फिर खाना खाया जाए | ”

          नरेश फ्रेश होने चला गया | उसके लौटकर आने के बाद हमने साथ – साथ खाना खाया |

          तब पौने ग्यारह बज रहे थे |

 

रात के लगभग सवा बारह बज रहे हैं | हम दोनों अपने – अपने बिस्तर पर लेटे हुए हैं | नींद नहीं आ रही है |

          “ तूने कोशिश नहीं की ? ” मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाया कि नरेश बीच में बोला , “ फिर ? ”

          “ थ्रू – आउट फर्स्ट डिविजन वाला ... इसका आश्चर्य है ! ”

          “ इसमें आश्चर्य की क्या बात है | पिछले चार – पाँच साल से जो जनरल की व्हेकेन्सी ही कहाँ निकल निकली है | और निकली भी हैं तो सब अपने वालों के लिए | अपने यहाँ करप्शन कम है क्या ? ” नरेश की उत्तेजना कम नहीं हुई , “ जिसको मौका मिलता है , वही नोंचने की कोशिश करता है | ”

          हम दोनों के बीच थोड़ी  देर के लिए सन्नाटा पसर गया |

          “ फिर कैसे चल रहा है ? ” मैंने सन्नाटा तोड़ा |

          “ ऐसे ही | पिताजी ढो रहे हैं मुझे | ” कहते – कहते नरेश के चेहरे पर उत्तेजना के साथ – साथ कुछ भी न कर पाने का मिश्रण चस्पाँ हो गया | मैंने अनुमान लगाया कि ये परिस्थितिजन्य ही घटित हुआ है | वह बोला , “ पिताजी कहते हैं कि मुझमें संकल्प की कमी है | ”

          फिर एक सन्नाटा |

          एकाएक नरेश ही बोला , “ अपनी सुना ... कैसी गुजर रही है ? ”

          “ बस कट रही है | ”  संक्षिप्त उत्तर दिया मैंने |

          “ मजे हैं – ये बोल | ” कहने के बाद नरेश के चेहरे पर फीकी – सी मुस्कराहट उभरी |

          “ खाक मजा ! ... सुबह से शाम तक ऑफिस में अपना सिर खटाते रहो | ”

          नरेश चुप था |

          “ बाबूगिरी करते हुए चार साल कैसे बीत गए – पता ही नहीं चला | वो तो अच्छा है कि ऑफिस में सेक्शन अच्छा है | घर से खाली पेट निकलो और शाम को भरा पेट लेकर लौटो | ” कहने के बाद मैं जोर से हँस पड़ा , किन्तु नरेश के चेहरे पर इंच मात्र भी हँसी नहीं आई |

          मैंने उठकर शर्ट की जेब में से सिगरेट का पैकिट निकाला और उसमें से एक सिगरेट निकालकर सुलगा ली , फिर पैकिट नरेश की ओर बढ़ा दिया | नरेश ने भी एक सिगरेट सुलगा ली |

          “ अच्छा हुआ कि अम्मा नहीं हैं | नहीं तो सिगरेट की तलब लगने पर भी सिगरेट नहीं पी पाते | ” मैंने कहा और सिगरेट ला कश भरा |

          “ अम्मा यहीं हैं ? ” नरेश ने आश्चर्य से पूछा |

          “ हाँ ... मामाजी के यहाँ | पिछले हफ्ते आईं थीं गाँव से | मामाजी सदर में रहते हैं | ” कहने के बाद मैंने घड़ी देखी | रात का एक बजने वाला है , किन्तु नींद आँखों से कोसों दूर है | हम दोनों बिस्तर पर तकिये का सहारा लेकर दीवाल से टिके हुए हैं |

          “ हमने अपनी सारी उर्जा पढ़ाई में खर्च कर दी | इन दिनों के लिए बचाकर नहीं रखी | ” नरेश ने कहा और सिगरेट मुँह से लगाईं |

          मुझे लगा कि नरेश बेरोजगारी के दंश से बुरी तरह आहत है ... भीतर तक ... लबालब ... जिसे वह व्यक्त नहीं कर पा रहा है ... सिर्फ छटपटा रहा है ... एक अव्यक्त छटपटाहट | ... सम्भवतः ये अव्यक्त छटपटाहट आज और अभी व्यक्त होने की चेष्टा कर रही है |

          वातावरण भारी हो गया |

          हमारी सिगरेट के धुँए से कमरा तम्बाकू की गन्ध से भर गया | उठकर मैंने खिड़की खोली | कमरे में ठण्डी हवा का झोंका आया | बाहर फिर से बौछारें पड़ने लगीं |

          मैंने सिगरेट का आखिरी कश लेकर सिगरेट फेंक दी और बिस्तर पर आकर पैर लम्बे करके तकिये के सहारे अधलेटा हो गया |

          “ अब समझ में आया है कि ये दिन कितने यंत्रणादाई होते हैं | ” नरेश ने कहा |

          “ सचमुच बेहद | ” मैंने सिगरेट का पैकिट टेबिल पर रखा , फिर अपने दोनों हाथों की हथेली आपस में रगड़ीं , “ मैं इन दिनों से अधिक नहीं गुजरा हूँ – केवल दो – ढाई वर्ष ही | ”

          नरेश चुप रहा – कुछ झेलता हुआ - सा |

          “ अच्छा हुआ कि ... ” मुझसे वाक्य पूरा नहीं हुआ | पता नहीं क्यों आगे के शब्द जुबान तक नहीं आ पाए |

          “ क्या ? ” नरेश ने पूछा | अभी भी लग रहा है कि वह भीतर – ही – भीतर कुछ झेल रहा है |

          “ बहुत कटु है , पर यथार्थ | मैं जो कहने जा रहा हूँ , उसको सुन तू निश्चित रूप से ये अवश्य सोचेगा कि मानवीय मूल्य किस हद तक गिर चुके हैं|”

        नरेश चुप रहा | उसकी आँखों में प्रश्न उभर आया | ***                                             

                           ( आगे, भाग – 3 में पढ़ें )

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पवन शर्मा

श्री नंदलाल सूद शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय

जुन्नारदेव , जिला – छिंदवाड़ा ( मध्यप्रदेश )

फोन नम्बर –   9425837079

Email –    pawansharma7079@gmail.com  

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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.         



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