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27.9.21

कवि मुकेश गोगडे - " पिता की छाँव "

 











पिता की छाँव



लड़खड़ाते कदमो से जब  चलने लगा   था।
पिता  की  अंगुली  थाम  समलने  लगा  था।
गुरुर क्यो नही होता मुझे अपने पिता   पर?
महफ़ूज रखा मुझे जब भी गिरने लगा था।।

इज्जत   कमाई   बहुत  जो  सलीका  मिला  था।
बुलंदी  दिलाई   मुझे  जिस  राह  पर चला   था।
उनके आशिष बिना  मैं  कर  भी  क्या  सकता?
कमाया जितना मेने पिता को अर्पित किया था।।

पिता का साया आज भी  वैसा  ही  बना  था।
मैं भी उनका वैसा ही बच्चा हूँ जैसा जना था।
मरते दम तक फ़क्र क्यो न हो मुझे पिता पर?
मेरी साख़ का आज भी वो मजबूत तना था।।

नाज़ुक  चरागों  को  बुझने  से  बचाया  था।
अंधेरा होशलों से चीरने तभी तो आया  था।
ढह कैसे सकता है उसका खूबसूरत मकां ।
नींव का पत्थर जिसने मजबूत जमाया था।।

बरक़रार रहे बरगद का साया जैसा बना था।
मैं भी गुजर जाऊँ ऐसे ही  टहनियाँ  सजाता।
ऐसी छाँव की सीतलता नशीब हो सभी  को,
जिसने कर्मो की धूप में  कदम  बढ़ाया  था।।  **


                                                                           -  मुकेश गोगडे


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संकलन – सुनील कुमार शर्मा , जवाहर नवोदय विद्यालय , जाट बड़ोदा , जिला – सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) , फोन नम्बर – 9414771867.

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