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18.4.20

मैं विभोर हूँ प्राण !



















( कवि श्रीकृष्ण शर्मा के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है )



मैं विभोर हूँ प्राण !

बन्द किये मैंने दरवाजे हारकर ,
तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !

दूरी की सारी सीमाएँ जीत लीं ,
किसी विहग के आकुल मन के गीत ने |
वर्तमान की धरती पर अब पग धरे ,
फिर से मेरे भूले हुए अतीत ने |
          याद , नयन में सागर भर तुमने कहा - 
          ' मेरी सुधि को रखना तनिक सँवार कर !
          बन्द किये मैनें दरवाजे हार कर ,
          तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !  

दिन - जैसा न लगाव रहा है छाँह का ,
जो समीपता छोड़ साँझ को बढ़ चली |
खड़ी अपरिचय की रेखा पर किन्तु ये 
उजली - उजली धूप साँवली पड़ चली |
          किन्तु सान्ध्य - तारा की छाया - कृति बना ,
          दिया जल रहा खण्डहर हुई मजार पर !
          बन्द किये मैने दरवाजे हार कर ,
          तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर |

प्राण , तुम्हारी साँसों की गर्मी लगी ,
उड़ता था बेपंख समन्दर व्योम में |
हुआ तुम्हारे जीवित स्पर्शों से मिलन ,
कितने स्वर्ग बस गये थे हर रोम में |
          वह सुहाग का चाँद , कुँआरी चाँदनी ,
          तिरी तुम्हारे यौवन की मझधार पर !
          बन्द किये मैनें दरवाजे हार कर ,
          तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर !

दिन बेमालुम गया तुम्हारी याद में ,
गीत सुबह के मैंने गाये शाम को |
आज स्वयं में ही इतना डूबा हुआ ,
सुनता हूँ , पर समझ न पाता नाम को |
          मैं विभोर हूँ प्राण , तुम्हारा स्नेह ले ,
          फूल खिलाता बैठा हुआ अँगार पर !
          बन्द किये मैने दरवाजे हार कर ,
          तभी प्राण , तुम आयीं मेरे द्वार पर ! **

              - श्रीकृष्ण शर्मा 
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संकलन - सुनील कुमार शर्मा, पी.जी.टी.(इतिहास),जवाहर नवोदय विद्यालय,जाट बड़ोदा,जिलासवाई माधोपुर  ( राजस्थान ),फोन नम्बर– 09414771867



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